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गीतांजलि (काव्यानुवाद)

रबीन्द्रनाथ टैगोर

त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

प्रकाशक : भाषा सहोदरी हिन्दी प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16003
आईएसबीएन :9789386654007

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रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित गीतांजलि का दिन्दी काव्यानुवाद

प्राक्कथन

हिंदी काव्य जगत में छायावाद (1916-1936) का उद्भव उसी समय हुआ, जिस समय महात्मा गाँधी का उद्भव भारतीय राजनीति के आकाश पर हुआ। पर यह कहना ठीक नहीं होगा कि छायावाद और गाँधी जी की विचारधारा समान थी। हाँ, यह कहा जा सकता है कि गाँधी जी की जो भूमिका स्वाधीनता-संग्राम में थी, वही छायावाद की हिन्दी काव्य के सन्दर्भ में थी। सूक्ष्म कल्पना लाक्षणिकता, नए प्रकार का सादृश्य विधान, नया सौंदर्यबोध इत्यादि। सच्चाई यह है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है, जिसकी अभिव्यक्ति हम पंत, निराला, प्रसाद और महादेवी के काव्यों में सहज ही पा जाते हैं।

छायावाद युग में लिखी कविताओं में नव-जागरण के संकेत हैं। नव जागरण की इस भावना में एक नये मनुष्य की परिकल्पना दिखाई देती है। स्वाधीन मनुष्य की कल्पना उजागर होती है। छायावाद की भाव-भूमि को गाँधीवाद से जितनी प्रेरणा मिली, टैगोर से उससे कम नहीं मिली। आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का भी यही मानना है कि छायावाद बंगाल की भावभूमि का स्पर्श लेकर ही हिंदी में आया। उनका कथन है कि-'इस रूपात्मक आभास को योरोप में (Phantasmal) कहा जाता था और चूँकि ब्रिटिश भारत की प्रथम राजधानी कोलकाता ही थी, बंगाल के उस दौर के साहित्यकार विशेषकर ब्रह्म समाज के लोग उक्त वाणी के अनुकरण पर आध्यात्मिक गीत या भजन बनाते थे 'छायावाद' कहने लगे। धीरे-धीरे यह शब्द धार्मिक क्षेत्र से वहाँ के साहित्यिक क्षेत्र में आया और फिर रविन्द्रनाथ की बंगला कवि के रूप में प्रसिद्धि होने पर और उनके काव्य बहुचर्चित होने पर हिंदी के काव्य प्रेमियों ने भी इस पद्धति को अपनाया।

यदि सही रूप में आकलन किया जाय तो रविन्द्रनाथ के सांस्कृतिक चिंतन और कला विवेक ने छायावाद को प्रभावित किया। कलाओं 'का' अंतः संबंध रविन्द्रनाथ की सांस्कृतिक दृष्टि का आवश्यक पक्ष था। कल्पना किस तरह अनुभव और भावों के नये साहचर्य विकसित करती है, यह रविन्द्रनाथ के साहित्य में स्पष्ट था। शायद  इसीलिए पंत जैसे कवि रविन्द्रनाथ का प्रभाव इसी अर्थ में स्वीकार करते हैं। रविन्द्रनाथ के लिये राष्ट्रीयता विश्व दृष्टि से जुड़ कर एक सम्यक सांस्कृतिक चेतना बनती है। प्रसाद के दृष्टिकोण में 'छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती हैं। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृति-छायावाद की विशेषता है।

स्वच्छन्द कल्पना ही छायावादी काव्य भाषा के मूल में है। प्रकृति छायावादी कवियों के लिये एक सजीव सत्ता की तरह है। छायावादी कवियों की कल्पना ने सबसे अधिक भाषात्मक नवीनता प्रकृति-चित्रों में ही संभव की है। प्रकृति और मनुष्य के नये संबंध के विवेक से छायावादी कविता में प्रकृति-बिम्बों के असंख्य रूप दिखाई देते हैं। द्विवेदी-युग की कविता की भाषा की सफाई के अलावा उसका स्वरूप गद्यवत, रूखा इतिवृत्तात्मक और अधिकतर वाह्यार्थ निरूपक हो गया था। छायावाद उसी के विरोध में आया, जिसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तु विधान की ओर नहीं। आचार्य शुक्ल की दृष्टि में छायावाद मुख्यतः काव्य शैली है। शैली रूप में विशेषतायें हैं अभिव्यंजना और लाक्षणिक वैचित्रय, वस्तु विन्यास की विश्रृंखलता अर्थात् विखरापन, चित्र-मयी भाषा, मधुमयी कल्पना के अनुरूप कविता का रूप विधानहै।

छायावादी कविता में प्रतीकों का नया प्रयोग शैलीगत विशिष्टता का सूचक है। वह हमारे आस्वाद के अभ्यास को तोड़ता भी है और उसे सघन भी बनाता है। विराट कल्पना से छायावादी कवियों ने सुदूर वस्तुओं में नजदीकी रिश्ता कायम किया। वस्तुओं के बीच संबंधों की निकटता यानवीन संबंध भावना महत्वपूर्ण है। छायावाद में कल्पना ही नयी सृष्टि का विधान करने वाली है। अंग्रेजी रोमांटिक कवियों में कोलरिज कल्पना के महत्वपूर्ण व्याख्याता हैं। कोलरिज ने प्रकृति पर मानवीय भावों के आरोप को ही कल्पना कहा था। यह छायावाद को समझने के लिये एक महत्वपूर्ण सूत्र है। काव्य में वर्ण तथा रूप की योजना कल्पना ही करती है। छायावादी कवि जहाँ सादृश्य विधान के लिए दृष्टि कल्पना या ध्वनि कल्पना का उपयोग करता है वहीं स्पर्श कल्पना या गंध कल्पना का भी।

उपर्युक्त विशेषताओं को देखते हुए गीतांजलि में अनेक ऐसे स्थल हैं जहाँ छायावाद के संघटक तत्वों को आसानी से देखा जा सकता है। मैं आशा करता हूँ कि उन रसानुभूतियों को हृदयंगम कर पाठक एक महान प्रणेता के काव्य का, जिसे हिंदी भाषा में काव्यानुवाद किया गया है, आनंद ले सकेंगे। उसी तरह जैसे विश्व के महान साहित्यकार एवं साहित्य प्रेमी हृदयंगम किये और इस कृति को 'नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया।

- त्रिवेणी प्रसाद त्रिपाठी

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  1. प्राक्कथन

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